
जेठ की दोपहर जब सारा बाजार सुनसान होता है ,तब भी मेवालाल की दुकान खाली नहीं रहती। गाँव की इकलौती पंसारी की दुकान है । भीड़ होना लाजमी है। आज भी लोगों का हुजूम लगा था। सामान तौलते हुए मेवालाल ने सामने सड़क पर नजर फेरी तो देखा रमेश स्कूल से पढ़ा कर घर लौट रहा था। मेवालाल ने वहीं से हाँक लगाई अरे रमेश, महेश आया है क्या? रमेश चौंक कर ठिठका और जवाब दिया,”नहीं काका महेश तो महीनों से शहर से वापिस नहीं आया।मेवालाल ने कहा अच्छा हो सकता है मुझे कोई गलतफहमी हो गई हो। उसी जैसा कोई दिखा था जाते हुए तो सोचा शायद महेश आया हो। मगर बहुत कमजोर लग रहा था और न कोई दुआ न सलाम । मैंने भी सोचा महेश आए और अपने काका से न मिले..खैर..!! और वह फिर अपने ग्राहकों के साथ व्यस्त हो गया ।
महेश रमेश का बड़ा भाई था जो शहर मे नौकरी करता था । पत्नी का देहांत हो चुका था।एक बेटी थी तीन बरस की जो अपने चाचा और दादी के साथ गांव में ही रहती थी। महेश शहर में अकेला रहता था और दिन भर काम में व्यस्त होता था तो बेटी की देखभाल संभव नहीं थी।हलाँकि वह उसकी शिक्षा के लिए चिंतित था और यथाशीघ्र उसे शहर ले जाना चाहता था।
घर पहुँचते ही रमेश को माँ ने खुशी से चहकते हुए सूचना दी महेश आया है, अपने कमरे में है जा मिल ले और फिर हाथ मुँह धोकर आजा, खाना परोस रही हूँ । वह सीधा कमरे की ओर लपका, देखा, महेश खाट पर लेटा बीड़ी पी रहा था । सच मे बहुत कमजोर लग रहा था। जैसे महीनों से बीमार हो और हफ्तों से नहाया न हो । उसको यूँ मैली कुचैली शर्ट में देख रमेश को आश्चर्य हुआ और याद आया कि यही महेश अपनी चमकती शर्ट पर एक शिकन भी बर्दाश्त नहीं करता था। क्या हो गया है इसे? महेश भाई को देख फीकी हँसी हँसा , बोला आ गया तू कैसा है? तेरा स्कूल कैसा चल रहा है।रमेश जवाब दिया सब बढ़िया है भाई । तू कब आया ? कोई खबर ही नहीं दिया आने की।महेश जवाब देने को उद्दत ही हुआ कि खाँसी का दौरा पड़ा उसे। रमेश समझ नहीं पा रहा था क्या करे मन ही मन तड़प उठा था उसका यह हाल देखकर और तभी नन्ही बिटिया आगई पिता से मिलने पर इतने दिनों बाद देख वह चाचा के पीछे ही उनका कुर्ता पकड़ छिप गई थी । चाचा ने हँसते हुए मिनी को उठाया और पिता की गोद में बिठा दिया। पिता ने प्यार से बेटी के सर पर हाथ फेरा पर मुँह से कोई बोल न फूटा। दोनों में मूक वार्तालाप हुआ एक दूसरे की हालत से वाकिफ हुए और यूँ ही कुछ पल बीत गए ।
माँ ने तब तक रसोई से खाने के लिए आवाज लगाई और सब रसोई में खाने नीचे बैठ गए । माँ की खुशी आज देखते ही बनती थी । अपने हाथ से बेटे को खिला खुद ही तृप्त हो जाना चाह रहीं थीं ।पर महेश की तो भूख ही जैसे हर ली गई थी ।जैसे तैसे एक रोटी खा वो उठ गया ।हाँथ धो फिर से खाट पर लेट बीड़ी जला लिया था। खाँसने की आवाज बाहर तक आ रही थी। सब जैसे समझ कर भी समझना नही चाह रहे थे । मौन सांत्वना एक दूसरे को दिए जा रहे थे कि सब ठीक है , सब ठीक हो जाएगा।साधारण लोग ही अक्सर चमत्कार में विश्वास करते हैं ।
शाम को रमेश छत पर टहल रहा था और महीने के खर्च का हिसाब करता जा रहा था।एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक की तनख्वाह ही कितनी होती थी। खर्च ज्यादा और आय कम। भाई शहर से पैसे भेज देता था तो आराम से घर चल जाता था। पर इस बार भाई की हालत देख कुछ सम्भव नहीं लग रहा था। अभी बरसात से पहले घर की छत मरम्मत करानी है। गाय भी खरीदनी थी माँ रोज एक बार याद दिलाती है। इस साल मिनी का स्कूल में एडमीशन भी कराना है। सोचते सोचते उसका सर भारी हो गया। खाट पर चुपचाप लेट गया आँख बंद करके । ठंडी हवा ने सुलाने का काम किया और निद्रा ने कब अपने आगोश में लेलिया पता ही नहीं चला।
सुबह जब उठा तो सब पहले जैसा था। रसोई से माँ की खटरपटर की आवाजें आ रही थीं ।मिनी कहीं खेलने में व्यस्त थी ।भाई अभी तक सो रहा था।रात शायद देर तक जगता रहा था।खाट के नीचे बीड़ी के टुकड़ों का ढेर इकट्ठा हो चुका था ।वह फटाफट तैयार हो कुछ खा पी कर स्कूल केलिए रवाना हो गया।माँ ने पीछे से आवाज लगाई आते समय हरी सब्जियाँ लेते आना ।
स्कूल से लौटा तो भाई को उसी स्थिति में देखा ।जो कभी घर में एक पल को नही टिकता था, अब कमरे से भी बाहर निकलने को राजी नहीं था।कितना चुप हो गया था और कुछ ही महीने में जैसे कितना उम्रदार भी। माँ ने सूचना दी कि महेश कल वापस जाने को बोल रहा है। वह भाई के पास गया पर जैसे बात करने को कुछ रहा ही नहीं था। बस यूँ ही ये दूसरा दिन भी बीत गया।
अगले दिन सुबह सात बजे ही बस जाती थी शहर को। माँ चार बजे से ही रसोई में जुटी थी। कुछ बना के साथ भेज दे बड़े बेटे के। धुँआ था या मोह बार बार आँखें नम हो रही थीं ।कैसा तो हो गया है महेश।खुद से क्या बना पाता होगा खाना।दूसरी शादी को भी कहाँ राजी है। सोचा था नई बहू आएगी तो मिनी को भी सम्हाल लेगी।पर कहाँ संभव है।हर बार यही बोलता है कि अब मेरा पीछा छोड़ और रमेश की शादी की सोच।
रमेश भी तैयार था भाई को विदा कर स्कूल जाने केलिए । कुर्ते की जेब में दो सौ रुपये मुड़े तुड़े बचे थे।अभी तनख्वाह भी नहीं मिली थी बस यही आखिरी पूँजी थी इस महीने की। अजीब उहापोह मची थी दिमाग में कि पता नहीं भाई के पास बस के किराए के भी पैसे हैं या नहीं । अब तक हमेशा बड़ा भाई ही उसे पैसे देता आया है।आज वो उसे दे तो कहीं उसके “पौरुष” को ठेस तो नहीं पहुँचेगी। क्या करे। तभी भाई अपना इकलौता बैग लिए कमरे से बाहर निकला ।रमेश को देखते हुए बोला चलता हूँ भाई ।जल्दी ही तुम सब को शहर ले जाने का इंतजाम करूँगा। रमेश की आँखें भर आईं पास आकर चुपचाप भाई की जेब में वो आखिरी दो सौ रूपए डाल दिए और बोला तुम फिक्र ना करो भैया।यहाँ जिंदगी बहुत मजे से बीत रही है हम लोगों की। माँ भी खुश है और मिनी का भी एडमिशन इस साल अपने स्कूल में ही करा दूंगा ।जवाब में महेश का गला भर आया। कुछ बोला नहीं गया और तेजी से रसोई की तरफ वो बढ़ गया।
महेश रसोई की स्थिति से वाकिफ हो गया था। वहाँ के खाली डब्बे सब हाल बता रहे थे। माँ ने पूरे जतन से खिलाया। साथ एक पोटली भी बाँध दी जिसे ले जाने को महेश ने साफ इंकार कर दिया।
जाने की बेला आगई थी ।मिनी को गोद में ले महेश ने प्यार किया। उसकी छोटी हथेली में कुछ थमा तेजी से बस पर सवार हो गया ।
भाई को छोड़ वो सब घर वापस आ चुके थे ।तभी मिनी दौड़ती हुई आई और चाचा को कुछ थमाती हुई बोली, चाचू पापा ने जाते हुए मुझे ये दिया।
…और नन्ही हथेलियों पर वही मुड़े हुए दो सौ रुपुये के नोट थे।
वह अब भी सोच रहा था..हाए ये पुरुष और उसका ये मिथ्या पौरुष ..!!
बस जाते हुए दूर से हार्न दे रही थी।
समाप्त
अच्छा लिखा है। कहानी जिन्दा लग रही थी, महसूस हो रही थी।
Thank you so much ashwani ji. I am onliged
“धुँआ था या मोह बार बार आँखें नम हो रही थीं।” जैसी लाइन कहानी की जान है। कहानी ने दिल छू लिया काफी दिनों बाद कुछ ऐसा सजीव और मार्मिक पढ़ा।
आपका बहुत धन्यवाद । आप के इस कथन ने मेरा बहुत उत्साहवर्धन किया। आभार
Wah! Itni jaldi itna behtareen likhne ke liye ḍheroṅ badhayian!! Bahut hi sajeev aur marmik kahani ban padi hai!
Thank you so much Ritu ji for ur encouraging compliments. That meant me a lot
Excellent touching story, Excellent writing skills