स्वलेख : जून 4, 2017
मार्गदर्शक : अर्चना अग्रवाल
विषय : दोपहर
चयनित रचनाएं
1
दोपहर का वो वक्त
जब माँ सो जाया करती थी
तब सभी बच्चों की टोली
आम तोड़ने जाया करती थी
माँ कोशिश तो करती थी
खूब मुझे सुलाने की
आँचल पानी में भिगोती थी
और ओढ़ा देती थी
मै शैतान था और उद्दंड भी थोडा
उन्हें ही सुला दिया करता था
उनके गालों को प्यार से
सहला दिया करता था
उठता था बड़ी धीरे से
कहीं वो उठ ना जाएं
दबोच ले फिर बच्चे को
बच्चा सुला न दिया जाए
हर रोज दोपहर में
यही हाल होता था
एक माँ थक कर सोती थी
एक बच्चा फिर धोखेबाज़ होता था
Sifar @sifar_rooh
2
तिलिस्म है दुपहरी,
सूरज की जादूगरनी है.
सुबह से वक़्त चुरा,
शाम के आने से पहले,
जादू अपना दिखाती है…
रोज़ सड़क के कैनवास पर,
एक पूरा शहर बिछाती है…
कहीं झूमते पेड़ , कहीं लहराती डालियाँ,
कहीं पक्षियों के जोड़े,
कहीं फूल बनती कलियाँ ,
कहीं खुले दरवाज़े,
कहीं बन्द खिड़कियां,
कहीं खेलते लड़के,
कहीं नाचती लड़कियां ..
बना कर शहर पर ज़िन्दगी के निशान
दुपहरी कहाँ चैन पाती है
परछाईंयों से खेलती है, छोटा करती है
कभी बहुत बड़ा कर जाती है…
इसी जादू में , हौले हौले, चुपके चुपके
प्रेम को पलते देखा है
इसी दुपहरी में तेरे साये को
अपने साये पर झुकते देखा है
सुबह की शाम से बात कराने
रोज़ दुपहरी आती है
नभ की सुनहरी राजकुमारी
अपना तिलिस्म बिखराती है।
By Preet Kamal @BeyondLove_Iam
3
पीपल की छाया तले मिली थी इक दोपहर..
मैली कुचली, कुछ सकपकाई सी दोपहर..
सर पर सूरज रख, दिन बेचने निकली दोपहर..
पेट सहलाती जीभ घुमाती , भूखी प्यासी सी दोपहर..
कब घर जाएगी, किरणों को क्या खिलाएगी..
यही सोचती, माँ जैसी थकी थकाई सी दोपहर..
शाम को बासी रोशनी कौन खरीदेगा..
पत्थर पे सर रख कर, खुद पथराई सी दोपहर..
बुझती आँखें मगर कड़क सुनेहरी..
ग़रीब के घर में चुंधियाई सी दोपहर..
चाँद पियक्कड़, मुँह औंधे गिर के सो जाएगा..
अपनी किस्मत को कोस्ती, कसमासाई सी दोपहर..
जब नई नवेली सुबह थी, लोग पानी की ‘मुँह दिखाई’ दिया करते थे..
ये कहाँ दिन रात के जाल में अटकी, खिसियायी सी दोपहर..
मैली कुचली, कुछ सकपकाई सी दोपहर..
सर पर सूरज रख, दिन बेचने निकली दोपहर..
पेट सहलाती जीभ घुमाती , भूखी प्यासी सी दोपहर..
कब घर जाएगी, किरणों को क्या खिलाएगी..
यही सोचती, माँ जैसी थकी थकाई सी दोपहर..
शाम को बासी रोशनी कौन खरीदेगा..
पत्थर पे सर रख कर, खुद पथराई सी दोपहर..
बुझती आँखें मगर कड़क सुनेहरी..
ग़रीब के घर में चुंधियाई सी दोपहर..
चाँद पियक्कड़, मुँह औंधे गिर के सो जाएगा..
अपनी किस्मत को कोस्ती, कसमासाई सी दोपहर..
जब नई नवेली सुबह थी, लोग पानी की ‘मुँह दिखाई’ दिया करते थे..
ये कहाँ दिन रात के जाल में अटकी, खिसियायी सी दोपहर..
By Anuradha @Sai_ki_bitiya